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वे यहाँ क्यों नहीं हैं / विनोद दास

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पता नहीं किस तरह
पता नहीं किस दिन
शायद एक अज्ञात रहस्य की तरह
वे आए
और नदी तट पर बस गए
 
सम्भव है
जीवन अरण्य में भटकते हुए
पस्तहाल घुटनों की विनय पर
ठहर गए हों उनके पाँव
 
हो सकता है
जल पर थिरकते चाँद के जादू से
बँध गया हो उनका मन
 
यह भी सम्भव है
दुर्गम संसार में पाकर प्रकृति की छाया
उन्होंने छा ली हो
घास-फूस की छत
 
वे वहाँ थे
और पश्चाताप की परछाईं से मुक्त थे

उनके बारे में
यह भी एक किंवदन्ती थी
कि न जाने किस अमर्त्य लोक के
वे प्राणी हैं
नदी का जीवाणुग्रस्त पानी पीते हैं
और जीवित हैं
 
वे कीड़ों-मकोड़ों के सहचर हैं
लेकिन उन्हें न तो मलेरिया होता है
और न ही हैज़ा

उनकी मृत्यु भूख से नहीं होती
वे क्षुधाजीवी हैं
 
यह राय उनकी थी
जो उनके दुख को मनुष्य जनित नहीं
पूर्वजन्म का फल समझते थे
 
उनके दुख
जितने ह्रदयविदारक होते थे
भव्य पत्र-पत्रिकाओं में
सौन्दर्य प्रसाधन की तरह
ऐश्वर्य रस में उतने ही पगकर छपते थे ।

पानी
उनके लिए सिर्फ़ प्यास नहीं था

पानी से
उन्हें अनन्त प्यार था
और यह इतना अनन्त था
कि सूखे के दिनों में भी
वे अपनी आँखों में थोड़ा पानी छिपा लेते थे ।

इस अमानवीय समय में
उन्होंने बचाया
यथासम्भव एक शब्द भरोसा

सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं
अधिसंख्य पशु-पक्षी भी उन पर भरोसा करते थे ।

एक कारण यह भी था
कि वनपथ से
जब वे गुज़रते थे
असंख्य वृक्ष हाथ हिला-हिला कर
एक कॉमरेड की तरह
उनका अभिवादन करते थे
 
यह कथन अति नाटकीय लग सकता है
लेकिन पितामह की तरह
वे पहाड़ को देखते थे
और सादर थोड़ा झुक जाते थे ।

उनके अन्तस में
बादल घुमड़ते थे
और छूने पर
आत्मा के एक एक रन्ध्र को
पूरी तरह तर-बतर कर देते थे

वे खोजी थे
लेकिन अपने अविष्कार
व्यापारिक कम्पनियों की तरह
उन्होंने कभी पेटेण्ट नहीं कराए
मसलन खरबूज -तरबूज़ की लज्ज़त
सिर्फ़ उनकी नहीं
पूरी सृष्टि की सम्पत्ति थे

उन्हें पता था
कि पर्यावरण महोत्सव में शिरकत किए बिना
किस तरह बचाया जा सकता है ब्रह्माण्ड
 
प्रकृति से
वे सिर्फ़ लेते ही नहीं थे
उसे देते भी थे
 
विकास क्या है
दूसरों के गोश्त में नाख़ून धँसाए बिना
उन्होंने परिभाषित किया
 
उन्होंने चरितार्थ किया
करघा चालते हुए
कबीर की तरह गाया जा सकता है
जीवनगीत

चप्पू चलाते हुए
मछली जाल फेंकते हुए
जब वे उदग्र कण्ठ से खींचते थे तान
पक्के सुर के तमाम घराने
अनिर्वचनीय रोमांच से भर उठते थे

लोकभाषा में कविगण कहते थे
और सच ही कहते थे
कि कछार में बबूल के पेड़ की तरह
वे वहाँ जीवट के प्रतीक थे
 
यह व्यंजना नहीं है
कि जो कल यहाँ
एक जीवित यथार्थ की तरह थे
वे आज यहाँ नहीं हैं

अब कोई नहीं बताता
वे यहाँ क्यों नहीं हैं
  
क्यों नहीं है
चरनी पर उनकी रम्भाती गाय
मुर्गीबाड़े,बत्तखों की सफ़ेद फड़फड़ाहट
चरर... चरर... करती बैलगाड़ी
खजूर इमली के गाछ

कहाँ चला गया
वह कबड्डी का मैदान
जहाँ खेलते हुए
वे कभी मरते थे
और कभी जी जाते थे

कोई नहीं बताता
हाँके की तरह उन्हें खदेड़कर
विदेशी पूँजी से जहाँ बन रहा है तापगृह
उनकी महँगी बिजली से
तपते जेठ के दिनों में किनके घर ठण्डे होंगे
और कटकटाती पूस में
किसके घर होंगें गरम

कोई नहीं बताता
जब यहाँ होगी दिव्य जगमग
नदी तट से विस्थापित
क्या फिर दिखाई देंगे
या वे तब भी खोज रहे होंगे
किसी गन्दे नाले स्थित
टायर -मोमजामे की थिगलियों की छत की नीचे
सिर्फ़ ढिबरी भर रोशनी

कोई कुछ नहीं बताता
सबने साध रखी है रहस्यमय चुप्पी

लेकिन हम क्यों चुप हैं
क्या हम भी शामिल हैं
कहीं न कहीं
इस पूरे प्रकरण में