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वे ही स्वर / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
वे ही स्वर वे ही मनुहारें
वही वही दस्तक ड्योढ़ी पर
वही वही अगवाता आंचल
वह आंगन
वे ही दीवारें
वही ख्याल खिलौने वे ही
वे मौसम वे ही पोशाकें
वही उलहना
वे तकरारें
वही लाज घेरें मृग छौने
सिके वही चंदोवा रोटी
वही निवाला
वे मनुहारें
वही वही हठियाये चेहरे
बहला लेती वही हक़ीक़त
वही गोद
वे सगुन उतारें
वही वही निंदियाये आंखें
थपके वही गोत सिरहाने
वे ही स्वर
वे ही हिलकारें
वही तक़ाजों का दरिया है
वही नाव है कोलाहल की
वे हिचकोलें
वे पतवारें
यह दुनियां यादों को दे दें
चुप का चौकीदार बिठा दें
क्या बतियायें
किसे पुकारें?