दरीचे ज़हनों के खुलने की इब्तिदा ही नहीं
जो उट्ठे हक़ की हिमायत में वो सदा ही नहीं
ज़मीर शर्म से ख़ाली हैं, दिल मुहब्बत से
हम इरतेक़ा जिसे कहते हैं, इरतेक़ा ही नहीं
तख़य्युलात की परवाज़ कौन रोक सका
परिंद जब ये उड़ा फिर कहीं रुका ही नहीं
ग़म ए जहां पे नज़र की तो ये हुआ मालूम
जफ़ा जो हम ने सही, वो कोई जफ़ा ही नहीं
बग़ैर इल्म के ज़ुलमत कदा है ज़ह्न मेरा
जो कर दे फ़िक्र को रौशन, वो इक ज़िया ही नहीं
तेरी वफ़ाओं का शीराज़ा मुंतशिर हो कर
बता रहा है हक़ीक़त में ये वफ़ा ही नहीं
जब आया आख़री लम्हात में मसीहा वो
न शिकवा कोई 'शेफ़ा' और कोई गिला ही नहीं