शबाब ललित / भीगी पलकें / ईश्वरदत्त अंजुम
ईश्वर दत्त अंजुम जागती आंखों और खुली ज़िहन के शायर हैं। "भीगी पलकें" उन की ग़ज़लों और कतआत का मजमूआ है जिस के मुसव्वदे की वरक़-गर्दानी राकिमुलसुतूर (इस लेख के लेखक) को हुई है। अंजुम हिंदुस्तान के ज़हीन और कामिल उस्तादे-फ़न शायर जनाब राजेन्द्र नाथ रहबर के बिरादरे-अकबर (बड़े भाई) हैं।
इस अदब-पारा पर इज़हारे-राय करने से पहले इस बसीर (अक्लमन्द) और खुश-नज़र शायर के अदबी पस-मंज़र पर निगाह डालना ज़रूरी है। अंजुम की विलादत पंजाब के ज़िला गुरदासपुर के एक तहसीली सदर मक़ाम शकरगढ़ में 5 जुलाई 1924 को हुई जो तक़सीमे-वतन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गई। अंजुम को अपने माता पिता और कुनबे के हमराह हिजरत कर के भारतीय पंजाब के शहर पठानकोट में पनाह लेनी पड़ी। उन के पूज्य पिता पं. त्रिलोक चंद शकरगढ़ की कोर्ट में वकालत करते थे। ज़ाहिर है कि ईश्वर दत्त अंजुम माहिरे-कानून और फ़ाज़िल अदीबों के खानदान से तअल्लुक रखते हैं। अंजुम के चचा पं. गिरधारी लाल शायर थे और 'दर्द' तख़ल्लुस करते थे।
अंजुम मौसूफ़ ने "बारह-मंगा" तहसील के शकरगढ़ के हाई स्कूल से मैट्रिकुलेशन पास करने के बाद विक्टोरिया डायमंड जुबली इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट लाहौर में मकैनिकल इंजीनियरिंग डिप्लोमा क्लास में दाखिला ले लिया। पाकिस्तान से हिजरत के बाद वो "दिल्ली इलेक्ट्रिक सप्लाई अण्डर टेकिंग" की सर्विस में आ गये और रिटायरमेंट के बाद मुस्तकिल तौर पर दिल्ली के हो कर रह गये। कभी कभी बेटे के पास लुधियाना आ जाते हैं। अंजुम के दो बेटे हैं सुधीर कुमार और नवीन कुमार। कुछ बरस पहले अंजुम एक सड़क हादिसा में शदीद ज़ख़्मी हो गये थे और दो बरस तक साहिबे-फिराश (बीमार) रहे।
अंजुम की शायरी का आग़ाज़ तब से हुआ जब आप लाहौर में तकनीकी तालीम का डिप्लोमा कोर्स कर रहे थे। वो उन की उठती जवानी का दौर था, लिहाजा ग़ज़ल की जादुई अदाएं उन को भा गयीं। ग़ज़ल एक सदाबहार सिंफे-अदब है जो अंजुम साहिब का पसन्दीदा वसीला-ए-इज़हार (अभिव्यक्ति माध्यम) है। फ़न का चश्मा हमेशा उबलता रहता है। इसी तरह उर्दू ग़ज़ल का सरचश्मा ढलती उम्र के कड़े मौसमों तक भी उबलता मचलता नहीं छोड़ता। अंजुम के ग़ज़लिया कलाम में रूमान और महब्बत की प्यासी दुनिया से ले कर तसव्वुफ़ और रूहानियत (वेदान्त, आध्यात्मिकता) की ख़ुश्क वादी तक का सफ़र क़दम क़दम रौशन है। उन का डिक्शन रिवायत और तरक़्क़ी पसन्दी के दरमियान एक पुल की तरह खड़ा है।
क्लसीकियत की रूमानी फ़ज़ा का उर्दू ग़ज़ल की अदबी रिवायत के साथ गहरा तअल्लुक है। शायर इस से कतई तौर पर मुंह नहीं मोड़ सकता। रिवायत के भरे पुरे ख़ज़ाने से कुछ न कुछ इक्तिसाब (प्राप्ति) शायर को करना पड़ता है और कला पर कुदरत हासिल करने के लिए इन ज़ीनों (सोपान) को उबूर करना नागुज़ीर है। बच्चा अपने वाप की उंगली थाम कर ही क़दम क़दम चलना सीखता है। जो फ़नकार या हक़ीक़त से मुन्किर है वो सरासर झूठ बोलता है। रूमान और राज़ो-नियाज़े-इश्क़ के मुआमलात में सोज़ो-गुदाज़ और दर्द-मंदी की अक्कासी (प्रति बिम्बन) में अंजुम रिवायती अल्फ़ाज़ वा अस्तुआरात (शब्दों और बिम्बों) को भी अपने उसलूब से नया निखार देते हैं और उन के लहजे का मख़्सूस धीमापन इन अशआर को और भी काटदार बना देता है। देखिये उन के कुछ अशआर:-
• झुकती ही चली जाती हैं क्यों बारे-हया से
देती नहीं क्यों दावते-दीदार निगाहें
• न लब हिले न कोई बात ही हुई लेकिन
पयाम आंखों ही आंखों में दे गया कोई
• तू कि आकाश में उड़ता हुआ इक बादल है
रुक के इक लम्हा मेरे खेत को पानी दे जा
महबूबा की बेवफ़ाई, बेरुखी औए हिज्र के जांकाह लम्हों की तस्वीर कशी मुलाहज़ा हो-
• रोने धोने के भी दस्तूर हुआ करते हैं
अपने अश्क़ों में लहू दिल का मिला कर रोना
जिस को चाहा है दिलों-जान से अब तक तू ने
दिल वो तोड़े तो चरागों को बुझा कर रोना
• उस का मिलना मुहाल है लेकिन
दिले-नादां को कौन समझाए
अपनी तक़दीर में कहां 'अंजुम'
उन की ज़ुल्फो के दिन नशीं साए।
अदब बराए अदब का ज़माना लद चुका। समाजी और सियासी तब्दीलियों के कारण रवय्यों ने भारत और पाकिस्तान दोनों में नये नये रूप लिए हैं। जुराइम-पेशा और आपराधिक तत्वों ने सियासत का लिबादा ओढ़ लिया है। मफाद-परस्त सियासत दानों और भ्रष्ट अफसरों की मिली भगत अवामी बजट का बहुत ही कम हिस्सा अवामी भलाई के कामों तक पहुंचने देती है। अंजुम का सियासी शऊर उसे सियासत दानों से बराहे-रास्त कुछ कहने की तलक़ीन करता है। वो यूँ कहते हैं:-
• मेरे खेत हैं अब भी प्यासे
सुनता हूँ बरसात हुई है
• हम मसीहा नफ़स कहेंगे तुम्हे
ज़र्द चेहरों पे ताज़गी लाओ
• वो पुजारी है नफ़रतों का मगर
परचमे-अम्न ले के चलता है
यए अशआर मकरूह सियासत के उस चेहरे को बे-नक़ाब करते हैं जो कई मस्नूई मुखोटे ओढ़ लेता है। इस के बावजूद वतन परस्ती का अज़ली जज़्बा शायर के दिल की गहराई में पैवस्त है। वतन की ख़ातिर जान निसार करने की आरज़ू जवान के ख़मीर में है:-
• वतने-अज़ीज़ तुझ पे मेरी ज़िन्दगी निसार
होंटो पे तेरे ग़म में हमेशा फुगां रहे
• शाख़ की खैर मांगता हूँ मैं
शाख़ पर मेरा आशियाना है
• ऐ ख़ुदा अम्न, चैन, खुश हाली
मेरे हिन्दोस्तान के रखना
• अपने वतन की इज़्ज़तो-हुरमत के वासिते
क़ुर्बान होने वालों को मिलती है ज़िन्दगी।
अंजुम को जिस क़दर उम्र की कम मायगी (संक्षिप्त) का एहसास है उसी क़दर उस की पाकीज़गी के वो काइल हैं बल्कि उन के लिए ये ख़ालिक़ का वरदान और प्रसाद है। वो मानते हैं:-
• हमें भी साबिका गर्दिश से है तो क्या 'अंजुम'
ये चांद तारे ये सूरज भी तो सफ़र में हैं
• कैसे करें गुरेज़ भला ज़िन्दगी से हम
आइना ले के हाथ में बैठी है ज़िन्दगी
अंजुम ख़ुदा के फ़ैज़ से मायूस तो न हो
जामे कई बदल के फिर आती है ज़िन्दगी
• शेर में उस को ढाल लेता हूँ
जो मुझे ज़िन्दगी से मिलता है
• शान से जीना, शान से मरना
ज़िन्दगी में कोई अदा रखना
शायरी फ़ने-शरीफ है। फारसी शायर ने कहा है "शायरी जुज़वीस्त अज़ पैग़म्बरी"। इस लिए वो पूरी खुद-एतमादी (आत्म विश्वास) और फख्र से कहते हैं :-
• कोई भी अंजुमन हो उस में मुझे
मर्तबा शायरी से मिलता है
• हक़ नवाई न छोड़ना 'अंजुम'
फ़र्ज़ शायर का ध्यान में रखना
मेरी फ़िक्र-सुख़न के शहबाज़ो
खुद को ऊँची उड़ान में रखना।
शायर अपने पाठक की ज़ेहनी तर्बियत और किरदार साज़ी (चरित्र निर्माण) का फ़र्ज़ भी अदा करता है। मानव की भलाई और नैतिक मूल्यों के विकास की तड़प , इंसान, दोस्ती, मुसावात ( समता), तंगदिलाना फ़िरक़ा परस्ती से गुरेज़, हमदर्दी, ईमानदारी, अद्ल और इंसाफ़ के औसाफ़ शायरों के मन पसन्द विषय रहे हैं। और उन का स्रोत है ख़ौफ़े-ख़ुदा और परमात्मा के बनाए अद्ल (न्याय) पर भरोसा और ज़िन्दगी और मौत का अचूक निज़ाम जिस के हाथ में है। 'अंजुम' की राय में वही प्रभु इंसान का एक मात्र आसरा है। उन के कुछ चुने हुए रूमानी शेर देखिये जो उन के विश्वास की तर्जुमानी करते हैं:-
• उस रहीमो-करीम का 'अंजुम'
शुक्र है आस्तान बाक़ी है
• आंख से वो नज़र नहीं आता
देखना है तो बंद कर आंखें
• उस की रहमत हो मेहरबाँ 'अंजुम'
अपनी आंखों में कुछ नमी लाओ
• उस की रहमत की कर दुआ दिल से
ज़र्रे ज़र्रे में जिस का डेरा है।
उपरोक्त शेरों में जहां अंजुम यादे-ख़ुदा और इबादत को ज़रूरी समझते हैं वहां वो इंसानी भाई चारा, फ़िरक़ा वाराना यगानागत और हम-आहंगी के प्रवक्ता भी हैं जिस के चश्मे ख़ुदा परस्ती और ख़ौफ़े-ख़ुदा से फूटते हैं, फरमाते हैं:-
• दामे-नफ़रत से रहो दूर महब्बत सीखो
प्यार इंसान को इंसान बना देता है
• बुगजो-कोना से दूर तर रह कर
बिखरे तिनके संवारते रहना
सर को रखना ख़ुदा के सजदे में
नाम उस का पुकारते रहना
अंजुम को ज़िन्दगी की बुनियादी हक़ीक़तों का इरफान है। मुआशरे के साथ उन के मजबूत रिश्ते हैं। आज माज़ी की अख़लाक़ी कद्रो के विनाश से इंसान और इंसान के दरमियान दूरी बढ़ती जा रही है। खून के रिश्ते भी इस शिकस्तो-रेख़्त ( टूट-फूट) की ताब नहीं ला सके। पुरानी और नई पीढ़ी के बीच फ़िक्री और जज़्बाती टकराव खुल कर सामने आ रहा है। शायर इस से आंखें नहीं चुरा सकता। अंजुम फरमाते हैं:-
• तहज़ीबे-कुहन अपना अनमोल असासा थी
अब पास हमारे वो अलमास नहीं बाकी
• करता है इंहिराफ लहू से लहू यहां
खुद अपने खून ही से मैं हारा कभी कभी
• बुढापा कहता है बेटे के घर में जा के रहो
मगर बड़े ही मज़े में हम अपने घर में हैं
• कच्चा धागा तो नहीं खून का रिश्ता होता
ऐसे रिश्ते को बहर तौर निभाना होगा
गर बशर चाहे कि शाइस्ता नज़र वो आये
रंगे-तहज़ीबे-कुहन उस को दिखाना होगा
इन अशआर में कुछ जग बीती है और कुछ शायद आप बीती लेकिन वो खुशनसीब हैं कि अंजुम को नेक और नेक नाम वालिदैन मिले और नेक औलाद मिली और सोने पर सुहागा राजेन्द्र नाथ रहबर जैसा नामवर शायर और अदीब एक मुख्लिस और जां-निसार भाई के रूप में मिला जिस के मुतमल्लिक खुद वो फरमाते हैं:-
- न भूलेगा कभी मुझको खुशी का वो हसीं लम्हा
कि भाई बन के 'रहबर' जब मिरी दुनिया में आया था
अंजुम ने ग़ज़ल के पैकर में कुछ नज़्मों की भी तजसीम की है, जैसे ज़ेरे-नज़र मज़मूए में "साले-नौ", "कश्मीर", "शिमला" और कलयुगी इंसानों की "कारोबारी दोस्ती" के हवाले से कही गई नज़्में। उन की ग़ज़लें हों चाहे नज़्में या कतआत 'अंजुम' ने ज़िन्दगी की खुशियों और महरूमियों, शीरिनियों का तलज़्ज़ज़ (रसास्वादन) या तल्खियों के ज़हरनाक घूंटों की जलन को जैसे भोगा और महसूस किया वैसे ही उन्हें शेरी पैकर (कलेवर) में ढाला है। जज़्बात की सदाक़त और मासूमियत, लबो-लहजा की नरमी और घुलावट, क्लासिकी रचाव, अंदाज़े-बयान की सादगी और बे-तअल्लुफी पाठक के मन को मोहती है। कलाम में कोई मस्नूई पेचीदगी या उलझाव नहीं। बंदिश की चुस्ती, मिसरों की रवानी और रँगा रंगी, रूहानियत, इंसान दोस्ती, ख़ुदा परस्ती देश भक्ति, कनाइत, संजीदगी और समाजी भलाई के सरोकार, रिश्तों का एहमिराम, ज़िन्दगी की उम्दा कद्रों की बहाली, फ़िरक़ावाराना अम्न वा आशनी की तलक़ीन, ये सब अजज़ा उन की शायरी का ऐजाज़ का ऐजाज़ भी हैं और ऐजाज़ भी।