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शब्द-भूमि / रमेश कौशिक
Kavita Kosh से
यह भूमि हुई बंजर
अब इसमें बीज नहीं उग पाते
अँधियारी गहरी घाटी के शिशु
घुट-घुट मर जाते
पर्वत की परियों की पाँखें
गिध्द चील कौए
नोच-नोच खाते|
ओ र ओ
तेरी अभिव्यक्ति
यदि अभिशापित है
गूँगी है
तेरा संवेदन तुझ तक ही सीमित है
जीवन का बोझ लाद
सीख-दुःख की गाँठ बाँध
यदि तू असहाय
अश्वत्थामा-सा घूमता है
तो आ मेरे पास आ
ऊँगलियों को नचा
हाथों को उठा
आंखें तरेर
दाँत भींच
मुँह बिचका
सांसें खींच
और सीना फुला|
नई-नई चेष्टा
नए-नए संकेतों
नए-नए बिम्बों में
अपने अंतर के
खारे-मीठे सागर को
भीतर की आँधी को
बाहर मचलने दे
शब्दों की भूमि से अपने को
हटकर चलने दे|