भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शब्द नपुंसक तो नहीं / लता अग्रवाल
Kavita Kosh से
हर तरफ़
हिंसा का है ज़ोर
थमता नहीं क्यों कर
सिलसिला यह
ऐसा भी नहीं
हिंसा के विरोध में
उठ नहीं रही आवाज
कैंडील मार्च, काले झंडे
मुँह पर पट्टी बाँधे लोग
उतरे हैं मैदान में
दिए जा रहे हैं भाषण बहुत
संतों महात्माओं के प्रवचन से
पटे पड़े हैं
अखबार, टीवी चेनल
नीति अनीति पर खुलकर चर्चा है
फेसबुक, व्हाट्सेप पर
फिर क्यों कर
थमता नहीं
हिंसा का यह तांडव
कहीं ऐसा तो नहीं खो दी है
शब्दों ने अपनी सामर्थ्य
शब्द नपुंसक हो गये हैं।