शहर लौटते हुए दूसरे खयाल / लाल्टू
पहले वालों से भरपूर निपट लेने के बाद
आते हैं रुके हुए दूसरे खयाल
दिखने लगती है शहर की उदासी
वैसी ही जैसी यहाँ से जाते वक्त थी।
न चाहते हुए भी आँखें देखती हैं
कौन हुआ पस्त और कौन निहाल
शहर तो थोड़ा फूला भर है,
इससे अलग क्या हो सकता है उसे।
झंडे बदले हैं, पर उनके उड़ने के कारण नहीं बदले
उदासीन आस्मान के मटमैले रंग नहीं बदले
शोर बढा है पर कौन है सुनता, है पता किसे
उल्लास का गुंजन छूकर बहती है नदी
पहले जैसा है लावण्य पर बढ़ी है गंदगी
दीवारें बढ़ी हैं, छतें भी और बढ़े हैं बेघर
शहर ऊँघता है, जीने को अभिशप्त लंबी उमर
हिलता डुलता, कोशिश में बदलने की करवट
अंतर्मन से टीस है निकलती उसे यूँ देखते
एकाएक मानो अपना यूँ सोचना हम रोक लेते
और उसकी अदृश्य आत्मा को सहलाते हैं।
बहुत बदल चुके हमें चुपचाप देखता है शहर
हम नहीं जानते कि हमें भी सहला रहा होता है शहर
यह उसी को पता है
कि किस वजह से कभी जुदा हुए थे हम।