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शहादत / संतोष श्रीवास्तव

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कुछ कलियाँ है रातरानी में
खिलेंगी रात तलक
गूंथ दूंगा तुम्हारे बालों में
हम मना लेंगे बीसवां साल शादी का
कहा था तुमने

मैं हैरान, परेशान
ये क्या हुआ तुमको
सूखे सूखे से रहे बीस बरस
अब ये मौसम की, बहारों की
दस्तक कैसी

जमा था खून रगों में
बह चला जैसे
मेरा वनवास
खत्म हो चला जैसे
गुनगुनाती-सी लगी बाद-ए-सबा
हर तरफ शम्मा जल उठी जैसे

खुशी से खाली
सूनी आंखों में
हसीन ख़्वाब तैरने से लगे

कि फट पड़ा बादल
खून से तर तुम्हारी वर्दी पर
आतंकी हमले का खौफनाक मंजर था
सुलग उठी थी मुबंई
कि ढह गया था ताज

पोलीस की आला अफसरी में तैनात
झेली थी गोलियाँ तुमने
ये शहादत बहुत खूब
मेरे मौला
गर्व से उठ गया था सर मेरा

चढ़ा दिए थे खिले फूल रातरानी के
तुम्हारे चरणों में
कि बीस बरस की शहादत
मेरी भी तो थी
साथ हमसफ़र मेरे