शांति से मरूँगा मैं / रणजीत
शान्ति से मरूँगा मैं
बिना किसी कष्ट के
मैंने जीवन को भरपूर जिया है
भर-भर कर पिया है प्याला
और छलकाया उसे चारों ओर
संघर्ष किया है मैंने उद्ग्रीव, ऊर्ध्वबाहु
ज़ुल्म से जबर से
यह नहीं कि सफल ही रहा हूँ सदा
उसमें हारा भी हूँ
हुआ हूँ हताश भी अनेक बार
पर ग़म नहीं पाला उस हार का
दूटा नहीं हूँ कभी।
शान्ति से मरूँगा मैं
मुझे प्यार करती है
अब तक भी मेरी प्रिया
माने देते मुझको
मेरे अपने बच्चे
मन में मेरे धधक नहीं रही है कोई
ईर्ष्या की आग
न ही धुँधवा रही है कोइ
लोभ की लकड़ी
न उसमें जाले ही बुन रही है कोई
महत्वाकांक्षा की मकड़ी
केवल एक दिया जलता है आत्म-सम्मान का
अपने मनुष्य होने के भान का।
शान्ति से मरूँगा मैं
लुका-छिपा बन्द कर
तिजोरियों में, कोठरियों में
मैंने नहीं रक्खा है जीवन का रसरंग
होली के रंगों की तरह
भर-भर कर पिचकारियों में, डोलचियों में
मारा है प्रियजनों के, परिजनों के तन-मन पर
बाल्टी की बाल्टी उड़ेला है।
शान्ति से मरूँगा मैं
स्वप्न-ध्वंस, भ्रमभंग मेरे सब हो चुके
कभी के
दंश उनके सहकर निकल आया मैं
पचास से पहले ही
अब नहीं है कोई भ्रम
टूट कर जो तोड़े मुझे।
सपना कुल संसार के
भरपेट सोने का
स्वस्थ-सुखी होने का
रक्खे है मुझको भी स्वस्थ सुखी।
शान्ति से मरूँगा मैं
नहीं हूँ ऐसे किसी जन का सहारा मैं
बेसहारा जो हो जाय
मेरे मर जाने के बाद
छोड़ जाऊँगा मैं सबके लिये कुछ न कुछ
सभी धन्यवाद देंगे
शान्ति से मरूँगा मैं।
मेरी आँखें
अँधेरे में टटोल रहे
किसी दलित, अल्पसंख्यक को
शोषित-पीड़ित स्त्री को, बच्चे को
किन्हीं भी दो दृष्टिहीन लोगों को
देंगी नवजीवन का प्रकाश-
गुर्दे भी काम आ जाएं शायद
किन्हीं जरूरतमंदों के
नष्ट नहीं करूंगा लेकिन
शेष बचे तन को भी जला कर या दफ़ना कर
पढ़ें इसे एक पाठ्यपुस्तक की तरह छात्र
चिकित्सा विज्ञान की प्रयोगशाला में
एक नया अर्थ मिले
इस निरर्थक अवशिष्ट को भी
यही सब सोचते हुए
शान्ति से मरूँगा मैं
बिना किसी कष्ट के।