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शापित / सरस दरबारी
Kavita Kosh से
सूरज उससे अनभिज्ञ है
किरणें अनजान!
ख़ौफ़ज़दा रहती है वह
शाम के धुंधलके से-
और रात लाती है फरमान!
चल तेरे मरना का वक़्त आ गया
बंद कर देती है सारी
ख्वाइशें, सपने, यादें
और रख देती है वह संदूकची
उसी आले पर
जड़ लेती है चेहरे पर हँसी-
पोत लेती है रँग रोगन-
और बन जाती है नुमाइश
हसरतों पर कोई पाबंदी नहीं
जितना चाहे चुग्गा डाल दे
घेरे रहती हैं उसे-
पर पालती नहीं उन्हें
लहू लुहान होने के डर से
और नामुराद आँसू-
मूँह छिपाये फिरते हैं
हँसी उसका वस्त्र है
और उपहास उसकी नियति
और रिश्ते!
एक मृगमरीचिका-
जिसमें केवल आस है
यहाँ लोग रिश्ते कायम तो करते हैं
निभाते नहीं
सदियों से ब्रह्मकमल सी खिलती आयी है
सुबह होते ही मुरझा जाने के लिए