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शाम उतरी तो शाम के साए / ईश्वरदत्त अंजुम
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शाम उतरी तो शाम के साए,
साथ अपने उदासियां लाए।
दर्द भी आया यास भी आई
जिन को आना था वो नहीं आए।
लम्हें खुशियों के आरिज़ी निकले
कुछ पलों ही के वास्ते आए।
उस का मिलना मुहाल है लेकिन
दिले-नादाँ को कौन समझाए।
चौंकता हूँ हर एक आहट पर
भूल कर ही कोई इधर आए।
उसकी आँखों ने कुछ कहा तो था
हम ही नादाँ समझ नहीं पाए।
अपनी तक़दीर में कहाँ 'अंजुम'
उसकी ज़ुल्फ़ों के दिल नशीं साए।