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शाम का शीशा कांप रहा था / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
मैं जब तेरे घर पहुंचा था
तू कहीं बाहर गया हुआ था
तेरे घर के दरवाज़े पर
सूरज नंगे पांव खड़ा था
दीवारों से आंच आती थी
मटकों में पानी जलता था
तेरे आंगन के पिछवाड़े
सब्ज़ दरख़्तों का रमना था
एक तरफ़ कुछ कच्चे घर थे
एक तरफ़ नाला बहता था
इक भूले हुए देस का सपना
आंखों में घुलता जाता था
आंगन की दीवार का साया
चादर बन कर फैल गया था
तेरी आहट सुनते ही मैं
कच्ची नींद से चौंक उट्ठा था
कितनी प्यार भरी नरमी से
तूने दरवाज़ा खोला था
मैं और तू जब घर से चले थे
मौसम कितना बदल गया था
लाल खजूरों की छतरी पर
सब्ज़ कबूतर बोल रहा था
दूर के पेड़ का जलता साया
हम दोनों को देख रहा था