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शाम ढलने लगी / अमरेन्द्र

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शाम ढलने लगी, रात आने लगी।

किसने देखा मुझे चाँद के पीछे से
मैं विकल हूँ बना देखता नीचे से
बादलों का बनाए वह घूँघट चली
मच रही है हृदय में इधर खलबली
मेरी हालत जो देखी तो हँसने लगी
इस तरह चाँदनी को लुटाने लगी।

देख मुझको यूँ बेसुध और खोए हुए
कौन हिलती लताओं से छूए मुझे
कौन शीतल पवन से सुना गीत को
मेरे मन में बढ़ाए चले प्रीत को
किससे-किससे बचाए चलूँ आँखों को
रातरानी मुझे आजमाने लगी।

अय हसीं फूल-कलियाँ, खिली चाँदनी
अय हवाएं-लताएं, बिछी रागिनी
तुम न जाना, इस चाँद को जाने दो
कोई मुस्काए उसमें है, मुस्काने दो
मैं समन्दर की भाँति उठा चाहता
फिर मिलन की घड़ी पास आने लगी।