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शिकायत परिंदों से... / अनुलता राज नायर
Kavita Kosh से
मेरे हाथ से छिटक कर
प्रेम बिखर गया है
सारे आकाश में...
देखो सिंदूरी हो गयी है शाम
तेरी यादों ने फिर दस्तक दी है
हर शाम का सिलसिला है ये अब तो...
कमल ने समेट लिया
पागल भौरे को अपने आगोश में
आँगन में फूलता नीबू
अपने फूलों की महक से पागल किये दे रहा है
उफ़! बिलकुल तुम्हारे कोलोन जैसी खुशबू...
पंछी शोर मचाते लौट रहे हैं
अपने घोसलों की ओर.
उनका हर शाम यूँ चहचहाते हुए लौटना
मुझे उदास कर देता है.
देखो बुरा न मानना....
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं..