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शिशिर का जेठ / अमरेन्द्र

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अभी छिटकती पूर्ण चाँदनी, पूरा चाँद विहँसता
कि हठात ही घिर आई यह कैसी घोर अमावस
मन की पलकों के कोरों पर छाया है घन-पावस
जिसको दिल है, उसका तो वह संभले नहीं संभलता।

डर लगता है आने वाले कल के क्रूर समय से
द्वार हिन्द का सहमा-सहमा, सहमा हुआ क्षितिज है
जिसको देखा शांत-शांत-सा, कैसा तो आजिज है
काँप रही हैं दिशा-दिशाएं आने वाले भय से ।

शांत भाव से उठी हुईं ये चुप-चुप-सी अगुआई
इसे कहो मत क्रांति गुलाबी, यह हिसाब है कल का
राज खुलेगा राजपथों पर, सत्ता के उस छल का
यह इतिहास रचेगी निश्चय तरुणी की तरुणाई ।

नहीं मरेगी कभी दामिनी, देह भले मर जाए
इसी शिशिर में मुझे जेठ का सूरज भी दिखलाए ।