शुभे! रूठो नहीं / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
शुभे! रूठो नहीं आओ अभी तो बात बाकी है।
प्रणय की रागिनीवाली मिलन की रात बाकी है॥
सुवासित केश के जुड़े प्रिये! तुम खोल दो हँसकर
सुधा की बूँद ढुलकेगी अगर तुम बोल दो हँसकर
कमल की नाल-सी कोमल भुजा को हार बनने दो
अधर पर चुम्बनों के चित्र का संसार रचने दो
चपल चन्द्रानने! आओ करो स्वीकार मन से तुम
हृदय-साम्राज्य पर अधिकार की सौगात बाकी है।
शुभे! रूठो नहीं आओ अभी तो बात बाकी है।
प्रणय की रागिनीवाली मिलन की रात बाकी है॥
शरद की चन्द्रिका को तुम बसा लो होंठ पर अपने
सजा लो आँख में मनहर मुखर दुष्यन्त के सपने
हिरनमद से हुए विह्वल मदन को प्यार करने दो
जला अभिसार का दीपक प्रिये! मनुहार करने दो
तनिक झुककर इधर देखो घिरे हैं चाँद पर बादल
अये! मधुरे! करो स्वागत अभी बरसात बाकी है।
शुभे! रूठो नहीं आओ अभी तो बात बाकी है।
प्रणय की रागिनीवाली मिलन की रात बाकी है॥
मलय के अंक से उठती हुई इस गन्ध को देखो
शिला के वक्ष पर सोये निवह रतिबन्ध को देखो
नयन को ज़ाफ़रानी देह का पैग़ाम लिखने दो
अधर पर मंजुला मधुयामिनी का जाम लिखने दो
विहँसती कल्पना को खेलने का एक अवसर दो
अये! मृगलोचने! क्वारी कली का गात बाकी है।
शुभे! रूठो नहीं आओ अभी तो बात बाकी है।
प्रणय की रागिनीवाली मिलन की रात बाकी है॥
प्रतीक्षा में खड़ी है प्रीति की आराधना देखो
नवल कर के मृदुल आयाम की यह साधना देखो
छलकते रूप के पनघट शुभे! सन्देश देते हैं
महकते नव्य यौवन को दिखा आदेश देते हैं
प्रिये संकोच को त्यागो हटा दो लाज का घूँघट
लखो अरुणानने! मुकुलित हृदय-जलजात बाकी है।
शुभे! रूठो नहीं आओ अभी तो बात बाकी है।
प्रणय की रागिनीवाली मिलन की रात बाकी है॥