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शॄंगार करती हुई औरत / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
तुम्हारे स्तन पृथ्वी की तरह हैं, स्त्री
तुम्हारी आँखें आकाश की तरह
तुम गंध हो, हवा हो
जल हो, धूप हो स्त्री
तुम्हारे आइने के पीछे
घूर रहे हैं वे बनैले पशु
वे तुम्हें निगल जाना चाहते हैं
वे अपनी पृथ्वी को, प्रकृति को निगल जाना चाहते हैं
तुमने समुद्र की रेत पर
कई-कई संसार बनाए थे
लहरें उन्हें मिटाकर चली गईं
उनके जबड़े बहुत गहरे हैं
बहुत ख़ूँखार
बहुत आदमख़ोर हैं लहरें
होता यह है
कि हर तूफ़ान के बाद
अकेली छूट जाती हो तुम
एक रौंदी हुई रेती की तरह ।