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शेष / समृद्धि मनचन्दा
Kavita Kosh से
शेष कुछ भी नहीं बचता !
सच कहती हूँ
सूरज डूबे भस्म हो जाती है
धरा कविताएँ और आँखें
बस, बच रहता है
तलवों पर रास्ते का स्वाद
रात की ढिबरी पर
मन का स्याह रह जाता है
भस्म हो जाते हैं
आलिंगन भाषा और नदियाँ
बचते हैं, बस, खुरदरे पोर
सच कुछ भी शेष नहीं अब बचाने को !