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श्रृंगार रस / भावना जितेन्द्र ठाकर

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वो लम्हा किसी नाज़नीन के शृंगार-सा बेइन्तहाँ आकर्षक होता है,
जब कोई सनम अपने महबूब की बाँहों में होता है।

वो टकराती साँसों के आवागमन से उठते सूर-सा संगीत कहाँ पाओगे,
जब प्रणय के आगाज़ पर मौन ठहर जाता है।

मिलन के तलबगार चार लबों की उत्कंठा से छलकती व्यंजनाओं का आलाप
किसी मंत्र की रिदम से कम नहीं होता है।

वामिक की आगोश की गर्मी में पिघलते पसीजते जिस्मों की सुगंध सुमन,
कपूर या लोबान का पर्याय ही तो होती है।

माशुका की नाजुक कलाई से खेलते आशिकों की आँखों से बहता नूर
उस ईश के अर्श की चौखट से बहती नेमतों का राज़ है।

उम्र के साथ उन्नति करते प्रणय का लालित्य किसी कलात्मक
छवि का ठाट होता है, अद्दल अजंता की मूरत का प्रमाण होता है।

चरम की गहराई का आगम सिसकती साँसों से उठता है
जब तब धंटियों से ताल मिलाती आरती अज़ान की याद दिलाता है।

वो लम्हें हाँ वह लम्हें दो दिलों की इबादत का उन्मादित अंजाम होता है,
एक दूसरे की पनाह में जब अपना-अपना खुदा होता है।