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संकल्प / शिव कुशवाहा
Kavita Kosh से
सूरज की
घूमती हुई वृत्त परिधि
बन गयी है
धधकता हुआ शोला
अलसुबह से
बरसना शुरु हो जाती है
तपती हुई किरणजाल
तपते हुए लोग
तपती हुई सडके
तपते हुए गलियारे
और इस तपते हुए
सूरज के भाल तले
चले जा रहे लोग
सुविधाभोगी लोग
वातानुकूलित वाहनों से
नहीं फर्क पडता
तिलमिलाए सूरज से खौफ से
इसी तपते हुए
सूरज के खरजाल में
तन्लीन हुए
श्रम कण बहाते लोग
भरी दुपहरी में
काटते हुए
गेहूँ की बालियाँ
इस ताप को
धता बताते हुए
मन में संकल्प लेते से
प्रतीत होते लोग
वह संकल्प जो
तपती दुपहरी भी
जिसे डिगा न सके
संकल्प जो
विषम परिस्थति में भी
साथ नहीं छोडता
अन्नदाता हैं वह
जो भरते हैं पेट
देश के सभी जन का
नहीं करते भेद
अमीर गरीब का
बहाते हुए श्रम कण
करते हैं मनुजता का पोषण...