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संवत / अरुण कमल
Kavita Kosh से
तप रहा ब्रह्मांड
ऎसा रौद्र
ऎसी धाह
रेत इतनी तप्त कि तलवे उठ रहे पड़ते,
रेंगनी काँटॊं के फूल पीले
और उनकी भाप भरी गंध
और गिरगिटों का रंग धूसर
मैं तो नदी की खोज में चला था
ज्वर से तपते बच्चों के वास्ते मैं तो
रेत में छिपे जल को टेरता चला था
और यहाँ मरघता पर बैठा हूँ
चिताओं की अग्नि तापता।