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सखी री! यह अनुभव की बात / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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सखी री! यह अनुभव की बात।
प्रतिपल दीखत नित नव सुंदर, नित नव मधुर लखात॥
छिन-छिन बढ़त रूप-गुन-माधुरि, छिन-छिन नूतन रंग।
छिन-छिन नित नव आनँद-धारा, छिन-छिन न‌ई उमंग॥
नित नव अलकनि की छबि निरखत अलि-कुल नित नव लाजै।
नित नव सुकुमारता मनोहर अंग-‌अंग प्रति राजै॥
नित नव अंग-सुगंध मधुर अति मनहि मा करि डारत।
नित नव दृष्टि सुधाम‌इ जन के ताप असेष निवारत॥
नित नव अरुना‌ई अधरन की, नित नूतन मुसक्यान।
नित नूतन रस-सुधा-प्रवाहिनि मधु मुरली की तान॥
नित नूतन तारुन्य, ललित लावन्य नित्य नव बिकसै।
नित नव आभा बिबिध बरन की पिय के तनु तैं निकसै॥
कछुवै होत न बासी कबहूँ, नित नूतन रस बरसत।
देखत-देखत जनम सिरान्यौ, त‌ऊ नैन नित तरसत॥
वे ही आत्मा के प्रिय आत्मा, मम प्राननि के प्रान।
मेरे परम प्रानवल्लभ वे, प्रानाराम सुजान॥
तेरे अनुभव की तू जानै, तेरी बुद्धि बिसाल।
मैं तौ अपने मन नित निरखौं नित-नूतन नँदलाल॥
एक बेर तू नैकु निरखि लै वा जादू की झाँकी।
फिरि तौ तू नहिं मानैगी बिनु देखे वा छबि बाँकी॥