भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सच कड़ुवा नहीं लगता / हरेराम बाजपेयी 'आश'
Kavita Kosh से
सच आजकल मुझे कडुआ नहीं लगता,
कहने वाले कुछ भी कहें, कुछ बुरा नहीं लगता।
क्यों करूँ मैं वक्त्त जाया, झूठ की खिलाफत में,
उड़ती हुई बातों को कोई पर नहीं लगता।
हो गया फर्क यह अचानक मुझमें कैसे,
खुद का चेहरा भी मुझे अब अपना नहीं लगता।
दोस्तों ने ही बेहिसाब कहर ढाये मुझ पर,
अब तो दुश्मन भी मुझे गैर नहीं लगता।
बे-इज्जती के घूंट पी चुका हूँ इतने "आश" ,
अब तो जहर से भी मुझे डर नहीं लगता॥