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सच के पास आदमी नहीं है / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
सच का भूत
घूम रहा है दरबदर
ढूंढ़ता हुआ एक आदमी
उसे आदमी नहीं मिलते
वह जिसके साथ रह सके।
चारों तरफ भरा पड़ा है सच।
हज़ार-हज़ार आँखों से देखा जा सकता है।
क्षण-क्षण महसूस किया जा सकता है
मगर उसके पीछे आदमी नहीं है
इसलिए सच-सच नहीं है।
आदमी
सच से भयभीत
बुदबुदाता है कहीं नहीं है सच।
सच का अभाव है
सच का नहीं है अस्तित्व।
आदमी के पास सच नहीं है
और
सच के पास
आदमी नहीं है।