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सतगुर के सँग क्यों न गई री / कबीर
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सतगुर के सँग क्यों न गई री॥टेक॥
सतगुर के सँग जाती सोना बनि जाती,
अब माटी के मैं मोल भई री॥1॥
सतगुर हैं मेरे प्रान-अधारा,
तिनकी सरन मैं क्यों न गही री॥2॥
सतगुर स्वामी मैं दासी सतगुर की,
सतगुर न भूले मैं भूल गई री॥3॥
सार को छोड़ि असार से लिपटी,
धृग धृग धृग मतिमंद भई री॥4॥
प्रान-पती को छोड़ि सखी री,
माया के जाल में अरुझ रही री॥5॥
जो प्रभु हैं मेरे प्रान-अधारा,
तिनकी मैं क्यों ना सरन गही री॥6॥