सत्ता / सत्यनारायण स्नेही

वह रहना चाहते हमेशा
इसी के नशे में
इसी के लिए बुनते हैं
समूचा माया-जाल
इसी की आंखों से
उकेरते हैं विकास का
परिकल्पित चित्र।
इसके लिए
गड़ी जाती हैं
गरीबी की परिभाषा
जनसेवा के प्रतिमान
स्वकेन्द्रित बुनियाद
अपना नाम
अपनी शान।
लोकहित के नाम पर
निर्मित होती है
तात्कालिक मैत्री
दुश्मनी और सम्बंध
खत्म होती है
मर्यादा, निष्ठा
संवेदना और जज़बात।
जनता के हाथ
आती है सत्ता
सिर्फ़ एक दिन
तब अंगुली में लोकतंत्र की
स्याही लगाकर
बनते है कल्पित महल
होता है दिन में
तारों का दिदार।
दरअसल
सत्ता
सिमट जाती है
चार खूंटियों में
जहाँ से फ़ूटते हैं
तरह-तरह के चश्में
उगती हैं नई फ़सलें
लहराते बंजर खेत
समृद्ध होते खानदान
बेहिसाब
सुविधाओं से सराबोर
संवारते हैं
अपना घर-संसार
जनता बरसाती रहे
खुशबूदार फूल
करती रहे जय-जयकार
सूरत कैसी भी हो
सत्ता रहे बरकरार

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