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सत्य का प्रह्लाद / ऋषभ देव शर्मा


झूठ की चादर लपेटे
जल रही होली;
सत्य का प्रह्लाद लपटों में खडा़!


जो पिता की भूमिका में
मंच पर उतरे,
           विधाता हो गए वे।
जीभ में तकुए पिरोए,
आँख कस दी पट्टियों से,
कान में जयघोष ढाला,
            आह सुनने पर लगे प्रतिबंध,
            पीडितों से कट गए संबंध,
            चीख के होठों पडा़ ताला।
सत्य ने खतरा उठाया
तोड़ सब प्रतिबंध
मुक्ति का संगीत गाया।
खुल गए पर पक्षियों के
हँस पडे़ झरने,
खिल उठीं कलियाँ चटख कर
पिघलकर हिमनद बहे।

कुर्सियों के कान में कलरव पडा़!


पुत्र, पत्नी, प्रेमिका हो
या प्रजा हो,
मुकुट के आगे सभी
             प्रतिपक्ष हैं।
मुकुट में धड़कन कहाँ
             दिल ही नहीं है,
मुकुट का अपना-पराया कुछ नहीं है।
मुकुट में कविता कहाँ, संगीत कैसा?
शब्द से भयभीत शासन के लिए
मुक्ति की अभिव्यक्ति
भीषण कर्म है,
              विद्रोह है!

द्रोह का है दण्ड भारी!
साँप की बहरी पिटारी!
हाथियों के पाँव भारी!

पर्वतों के शिखर से
             भूमि पर पटका गया!
धूलि बन फिर सिर चढा़!


न्याय राजा का यही है:
रीति ऐसी ही रही है:
मुकुट तो गलती नहीं करता,
केवल प्रजा दोषी रही है।
है जरूरी
           दोष धोने के लिए
           जन की परीक्षा
           [अग्नि परीक्षा]!
झेल कर अपमान भी
जन कूदता है आग में
            बन कर सती, सीता कभी,
            ईसा कभी, मीरा कभी,
            सुकरात सा व कबीर सा।

सत्य का पाखी अमर
फीनिक्स - मरजीवा,
अग्निजेता, अग्निचेता - वह प्रमथ्यु

बलिदान की चट्टान पर
मुस्कान के जैसा जडा़।