सन्ध्या ने मेघों के कितने चित्र बनाए--
हाथी, घोड़े, पेड़, आदमी, जंगल, क्या - क्या
नहीं रच दिया और कभी रंगों से क्रीड़ा
की, आकृतियाँ नहीं बनायीं । कभी चलाए
झीने से बादल जिन में चटकीली लाली
उभर उठी थी, जिन की आभा हरियाली पर
थिरक उठी थी । जाते - जाते क्षितिज - पटी पर
सूरज ने सोना बरसाया । छाया काली
बढ़ने लगी, रंग धीरे - धीरे फिर बदले,
पेंसिल के रेखा - चित्रों से बादल छाए ।
विविध रूप आकार बदलते से, ज्यों न्हाए
हुए प्रकाश और छाया में, अपना पद ले ।
रात उतर आयी, दिखलायी दिये सितारे,
पेड़, गाँव अस्पष्ट दिखे, मानव-दृग हारे ।