सब कुछ बदल गया / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
पीतल की धरती
चांदी का चांद
भ्रमित भास्कर
और निकल रहा है जनाजा
मानवीय मूल्यों का
और देखो तो
नेतागण ही
आश्वासनों का अमृत पिलाते
संसद से सड़क तक
संतुष्ट देख जाते
कहते हैं
नैतिक मूल्यों से गिर गये हैं लोग।
और खुद तो लैश हैं
हत्या, घूस, लूट चोरबजारी, शोषण के अस्त्रों से
यह विधायकों का कफिला है
या जमीन्दारों का दूसरा जन्म ?
और संसद रक्षक हैं
सिर्फ अपने बनाये स्वर्ग के
अपनी मिट्टी से दूर।
और इधर
राशन की दूकानों पर
सीता का अनादर,
राम की अवहेलना
सड़क पर रोते लव-कुश की याचना ;
दूधबिहीन मातायें
अपने शिशुओं को खून पिलाती है
सोचता हूँ
कैसा यह स्वराज्य का दाबा करना
गोरी चमड़ी या काली चमड़ी में ही तफरका का ?
क्या है अपने या पराये की पहचान ?
आज अपने ही घर में
सभी बदल गये हैं
विद्यार्थी
शिक्षक
सरकारी सेवक
नेता/नागरिक
यहाँ तक की
देश भक्तों ने भी
अपना चोला बदल लिया है।
देश में प्रजातंत्र नहीं
बदलूतंत्र चल रहा है।