समता / शब्द प्रकाश / धरनीदास
धरनी जँहलो जीव हैँ, ग्रहरु भूत वैतार।
चित्रगुप्त यम सुर असुर, सिगरे हित हमार॥1॥
रवि शशि मण्डल वुध गरु, शक शनि राहुरुकेतु।
वाउर वैरी करि गनै, धरनी सबसोँ हेतु॥2॥
वायस जम्वुक श्वान खर, मृगा छेम करि छींक।
धरनी सगुन संदेसरा, सबै कहत हैँ नीक॥3॥
गज तुरंग महिषा वृषभ, मगर खचर अरु ऊँट।
धरनी देखु प्रतिग्रही, देह धरे चहें खुँट॥4॥
पूरनमासी सर्वदा, सदा अमावस बूझि।
धरनी सदा एकादशी, जाहि परी है सूझि॥5॥
धरनी सब दिन सुदिन है, कबहिँ कुदेवस नाँहि।
बहुँदिशि लाभ चऊ गुनो, हरि सुमिरन हिय माँहि॥6॥
धरनी तिल तन्दुल जलू, घृत मधु मिसिरी झारि।
दीनो अपने पितरको, एकै पिण्ड सँवारि॥7॥
गंगा यमुना गोमती, गण्डकि, उदधि अपार।
धरनी अपने पितरको, अर्पे एकै वार॥8॥
कर्म-रेख आवागमन, नर्क-वास यम-त्रास।
धरनी वाको सब मिटो, जाको हरि-विश्वास॥9॥