भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय करवटें बदल रहा है / शिवम खेरवार
Kavita Kosh से
समय करवटें बदल रहा है।
पर्वत जितनी ऊँचाई से,
मौन गिराकर चूर कर दिया,
भाषा के तेवर बदले हैं,
अंतस अब 'कंगूर' कर दिया।
छलछन्दों के मुख पर कालिख़,
मलने ख़ातिर मचल रहा है।
तेरे-मेरे पाप-पुण्य सब,
इसकी निगरानी में होंगे,
पाप नर्क में भेजेगा बस,
पुण्य 'राजधानी' में होंगे।
सबका दर्ज बही-खाता ले,
साथ सभी के टहल रहा है।
मक्कारों, धोखेबाज़ों के,
धर्मग्रंथ, उपदेश जलेंगे,
बिन मारे ये मर जाएँगे,
जब इसके आदेश चलेंगे,
अपनी वाणी पर सदियों से,
शत प्रतिशत यह अटल रहा है।