समय का समय / सुषमा गुप्ता
रात भर वह चेहरा
मेरे हाथों में था
उसकी आँखों में दिख रही थी
मुझे अपनी उदास आँखें
बीते हुए वक्त की राख
और
दर्द से उबलते पलों का धुआँ।
बहुत चाहा मन ने
समय लौट आए बीता
पर
समय का समय बदलना
आसाँ होता
तो क्या बात थी
एक रोज़
एक ठंड़ी-सी शाम
जब अचानक चले गए थे तुम
उस रात मौसम से ज़्यादा सर्द
ज़हन था मेरा
ठंड़ा ठहरा
और लगभग मरा हुआ।
बहुत महीनों और बहुत सालों
के सूरज ने मिल कर
जद्दोजहद की
तब कहीं कुछ गरमाहट
मेरे वजूद के हिस्से आई
पर प्राण फूँके कि नही
ये अब भी नहीं पता
जड़ को चेतन करना
आसाँ होता
तो क्या बात थी
तुमने चाहा था कभी
मेरा
मुझ जैसा न होना
कुछ ख्वाहिशें जताई थीं
और कुछ बंदिशें
जोड़ दी उनके पीछे
जैसे यूँ ही आदतन
छोड़ दी जाए थाल में रोटी
तृप्ति के बाद
कि जो बचा है
लो
वो बस तुम्हारा
पर मन का पेट
बचे टुकड़ों से भरना
आसाँ होता
तो क्या बात थी
मेरे पास कल भी
नही थी
मेरे पास आज भी
नही है
वो जादुई स्याही
जो ज़िन्दगी के पन्नों से
सहूलियत अनुसार
मिटा दे
आने जाने वाले
खानाबदोशों के
बेतरतीब से लिखे हर्फ़
और फिर से कोरा कर दे
उसे नई कहानी के लिए
काले रंग पर रंग भरना
आसाँ होता
तो क्या बात थी
समय का समय बदलना
आसाँ होता
तो क्या बात थी।