भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय के सिरहाने / राजेश्वर वशिष्ठ
Kavita Kosh से
किसी बच्चे की तरह बैठा हूँ
स्कूल की सीढ़ियों पर
पलट रहा हूँ नोटबुक के पन्ने
जिसमें लिखी हैं
दुःख और विस्मय की
अनुभूत परिभाषाएँ ।
वर्षों में सीख पाया हूँ बस इतना ही ।
कुछ नया सीखने की अब
कोई सम्भावना नहीं
कुछ नहीं बदलता
जीवन के स्थाई भाव में ।
पता नहीं कब बजेगी
छुट्टी की घंटी ?
बहुत उचाट है मन !