समानांतर दुःख / दीप्ति पाण्डेय
हमारे दुःख
ट्रैन की पटरी की तरह
बिछे रहे साथ- साथ
लेकिन कभी एक न हो सके
हम बुन रहे थे जो
ख्वाहिशों के नर्म स्वेटर
उनके फंदे बीच- बीच में उतरते ही रहे
एक घर बनाया था हम दोनों ने
'इश्क' जिसका नाम रखा था
उसमें अहम् के जाले छा गए
उधर से आती
हवाएँ बता रहीं थी -
कि कबूतरों की लड़ाई में
कुछ पँख टूटकर इधर उधर फैले हुए हैं
दीवारों पर लटके -लटके
धूल से लिपटी स्मृतियों का दम घुटने लगा
चाय के जूठे कप बालकनी में पड़े हुए
अपने प्रेमिल क्षणों को दोहराने का अभिनय करते हैं
मरोड़े हुए कई पेपर
दरवाजे के खुलने की राह देख रहे हैं
लेटर बॉक्स में पड़ी मेरी कई चिट्ठियाँ
तुम्हारे स्पर्श से जिन्दा होना चाहती हैं
और ये कि -
कबूतरों को दानों का नहीं हमारा इंतजार है
हे मेरे तुम!
चलो न
फिर से बुनते हैं अपना घोंसला
नाम जिसका 'इश्क'होगा
मेरा वादा है
फंदे नहीं उतरने दूँगी इस बार