समुन्दर
किसलिए
इतनी सलाबत
जान पर अपनी किये जाते हो
सदियों से
वो आखिर कौन सी
सुल्बी सऊबत है
जो तुम को बाँधती है
पेच अन्दर पेच
सतहे-माइल की सलसिल में
उठा कर हाथ शब को
उलझनों से क्यूँ उलझते हो
क्या तुम्हारी भी कोई अज़ली ख़ता है
या तुम्हें अपने गुनाह-ए-अस्ल की यादे-शदीद
लम्हा-लम्हा करती रहती है कशीद
कौन है वो
जिस का अहसास-ए-जुदाई
इस तरह
मजबूर करता है तुम्हें
ज़ुल्म करने आप अपनी ज़ात पर ही
तो तुम्हें पूरा यकीं है
कि तुम्हारा निस्फ़ जो तुम में नहीं है
बिना तुम्हारे पुर सुकूँ है
बहुत मुमकिन है
कि वो भी ज़र्रा-ज़र्रा क़तरा-क़तरा
फैलता हो तुम सा ही
मंज़र-ब-मंज़र
दर्द बन कर उस को भी यादे-दरीदा
करती जाती हो
तुम्हीं सा पारा-पारा
हाँ नहीं मुमकिन प' नामुमकिन भी तो ऐसा नहीं न