भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सरहद पर सिंदूर / अंकिता कुलश्रेष्ठ
Kavita Kosh से
गाड़ी गुज़रीं अनगिनत, होता हृदय अधीर।
फ़ोन नहीं पिय का लगे, नैनन बहता नीर।।
गुमसुम बैठी सोचती,लेकर मन में आस।
जाने किस क्षण आ मिलें, मनभावन उर पास।।
पल-पल राह निहारती, प्रियतम घर से दूर।
मातृभूमि हित के लिए, सरहद पर सिंदूर।।
क्या होली-दीपावली, कैसे व्रत त्यौहार।
साजन बिन सूना लगे, घर-आँगन-संसार।।
सुई घड़ी की भागतीं, भागें धड़कन साथ।
ईश्वर तुमसे माँगती, अपने पिय का हाथ।।