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सरे-आग़ाज़ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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शायद कभी अफ़्शा हो निगाहों पे तुम्हारी
हर सादा वरक़<ref>पत्ता </ref> जिस सुख़न-ए-कुश्ता से ख़ूँ है

शायद कभी इत गीत का परचम हो सरफ़राज़
जो आमद-ए-सरसर की तमन्ना में निगूँ है

शायद कभी इस दिल की कोई रग तुम्हें चुभ जाए
जो संग-ए-सर-ए-राह<ref>रास्ते का पत्थर </ref> की मानिंद निगूँ है ।


शब्दार्थ

<references/>


1965