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सर्ग तीन / राधा / हीरा प्रसाद 'हरेन्द्र'

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हुट्ठी कंश रहै बड़ा, जानै सब संसार।
जानी बूझी हर घड़ी, करै सदा तकरार॥
करै सदा तकरार, शान्ति के दुश्मन छेलै।
अस्त्र-शस्त्र के साथ, हमेशा खेला खेलै॥
उत्पाती भी खूब, करै राजा के कुट्टी।
लोग सदा भयभीत, रहै अहिनों ऊ हुट्ठी॥1॥

सगरे छैलै ओकरोॅ मनमानी के राज।
ढेरी राजा के छिनै, माथा पर के ताज॥
माथा पर के ताज, छिनी कारागृह भेजै।
शोकाकुल नृपराज, बहुत्ते जीवन तेजै॥
सुनी असुर के नाम, हमेश काँपै नगरै।
त्राहिमाम के शोर मचाबै सब्भैं सगरे॥2॥

प्यारी बहिना देवकी, खेलै संगे साथ।
चललै चर्चा एक दिन, शादी केरोॅ बात॥
शादी केरोॅ बात, बसुदेव ब्याहन ऐलै।
चारो तरफ उमंग, द्वार-घर-आँगन छैलै॥
सजलै दुल्हन रूप, सजाबै सखियन सारी।
शोभा केरोॅ धाम, लखै तब बहिना प्यारी॥3॥

शादी के सब काज, पूरा होलै धूम सें।
हँसी-खुशी के राज, झलकै चारो दिश सदा॥4॥

माय बहाबै लोर, चिन्तित मनमा बाप के।
गाबै भोरमभोर, गीत गला फाड़ी सखी॥5॥

कानी-कानी माय, लिपटी गल्ला सें कहै।
रखिहोॅ स्वर्ग बनाय, जा बेटी ससुराल केॅ॥6॥

देवकी, बसुदेव सें ब्याही,
जब चलली ससुराल।
कंशो चलै बनी लोकनिया,
पहुँचाबेॅ तत्काल॥7॥

सुनै कंशें आकाशवाणी,
होकर आठम लाल।
कंशराज तों याद करी ले,
होतौ तोरोॅ काल॥8॥

वही काल केॅ खतम करै के,
सोचै सदा उपाय।
कहियो-कहियो नारद बाबा
बातो दै उसकाय॥9॥

कृष्ण नाम से नफरत हरदम,
रहै कृष्ण सें रार।
भेजै बड़का मायावी सब,
पाबै पर नैं पार॥10॥

अका-बका, कागा, नागासुर,
भेजी गोकुल धाम।
कृष्णोॅ के बस चाहै करना
कंशें काम तमाम॥11॥

उ मायाबी पार नैं पाबै,
सबके बेरथ चाल।
उल्टे काम तमाम करी दै,
जाय तुर गोपाल॥12॥

बाल-सखा संग गौ चराबेॅ,
सबके जान बचाय।
खैथैं माखन, मटकी फोड़ी
भागे शोर मचाय॥13॥

सखिया जखनी चोरी पकड़ै,
कस्सी बान्है हाथ।
द्वारी-द्वारी नाच-नचाबै,
नाचै त्रिभुवन नाथ॥14।ं

वृन्दावन जब रास रचाबै,
सखियाँ दौड़ी आय।
चोरी वाला कथा-कहानी,
सोची मन मुस्काय॥15॥

रस्सी लानी, झूला बान्हीं,
जबकि कदम के डार।
राधा-मोहन झूलै बीचें,
नीचें यमुना धार॥16॥

धन्य कृष्ण छै, धन्य राधिका,
वृन्दावन छै धन्य।
धन्य गोपियाँ, ब्रजवासी सब,
मधुवन लागै धन्य॥17॥

मनमोहन के जहाँ बसेरा,
राज वहाँ ऋतुराज।
साथ राधिका राजै हर पल,
करन परम शुभ कामज॥18॥

डाल कदम के झुक्की-झुक्की,
छिरियाबै छै प्यार।
सुन्दर स्वागत गान सुनाबै,
कल-कल यमुना धार॥19॥

यमुना तट मनमोहक लागै,
हर पल जहाँ वसन्त।
कुंज भवन, शोभा मधुवन के,
कभी न होतै अन्त॥20॥

मौसम सब्भे बारी-बारी,
बदलै छै हर साल।
मगर मोहनी धुन सुन भूलै,
प्रकृति अपनों चाल॥21॥

छबो ऋतु मिली एक्खै साथें,
वृन्दावन मेॅ आय।
जड़-चेतन सब्भै मेॅ अपनोॅ
क्षण-क्षण असर दिखाय॥22॥

कखनूँ प्रेम सुधा बरसाबै,
मेटै विरहा ताप।
शरद चाँदनी छिटकी-छिटकी,
आबेॅ अपन्हैं आप॥23॥

सूरज छिपथैं ठंड बरसथौं,
ज्यों लागै हिमपात।
कान्हा तान सुनाबै जखनी
की कहभौं ऊ बात॥24॥

हरदम तान सुनाबै कोयल
सही शिशिर के अन्त।
राधा-मोहन संगें नाचै,
झलकै सगर वसन्त॥25॥

ओय पर पपिहा मारै तान,
भ्रमर केरोॅ पुलकित मुस्कान।

बनलोॅ मोर अशोक के डाल,
जूही के किशलय फूल लाल,
मृगी अहिनों राधा के चाल,
लखै मोहन के नैन विशाल,

वसन्थै के सब्भे पहिचान,
के छैएकरा सें अनजान॥26॥

मधुवन केरोॅ अनुपम बहार,
मेटै छै जीवन व्यथा भार।

हरियाली हरपल मधुवन मेॅ,
वसन्ती छटा हर कण-कण मेॅ,
मस्ती दीखै जड़-चेतन मेॅ,
राधा-मोहन वृन्दावन मेॅ,

नाचै-गावै हर पल मलार,
राधा, मोहन के कंठ हार॥27॥