सवालों के गिद्ध / भावना जितेन्द्र ठाकर
लरज़ती रातों में सवालों के गिद्ध मन गली में फ़ड़फ़ड़ाते है,
ख़्वाहिशों पर कब तक अश्कों के मोती लूटाती रहूँ।
रिक्त हे मेरी चाहत प्रेम का आस्वाद जाने कैसा होता होगा,
कामद व्यथा का भार सहे जो काँधा कहाँ ढूँढ कर लाऊँ।
हृदयभूमी बंजर-सी लहलहाते प्रीत के धान को तरसे,
मुसलाधार वृष्टियाँ इश्क की कहीं तो होती होगी।
चक्षुओं में प्रतिक्षा भरे बैठा होगा क्या कोई मेरी ख़ातिर,
खरमास जाने कब ख़त्म होगा परिणयशून्य जीवन, साथी को तरसे।
बैरागी चुड़ियाँ ऊँगलियाँ साजन की ढूँढे,
लटमंजरी को सहलाते अनन्य प्रेम की धारा जो बरसाए,
उस आगोश को तन नखशिख है तरसे।
तारे उगाए है पुतलियों की ज़मीन पर,
लबों पर तिश्नगी के फूल उगाए,
बिछा दूँ पथ पर साया प्रियवर का कहीं तो दिखे।
मग्न होते जिनकी आँखों में विहार करूँ उस माशूक से कोई मिलवाए,
तथागत नहीं कोई जो प्रेम के अवलंबन से अवगत कराए।
अनबिंधी प्रीत को चाहत की नथनी कौन पहनाए,
लकीरों में लिखे को कहाँ ढूँढू, क्या मेरे लिए भी उपरवाले ने कोई बनाया है।