सांवरी / रणेन्द्र
(1)
जानता हूँ तुम
रजतपट से बाहर आई
नन्दिता दास, रेखा, स्मिता
नहीं हो,
न ही
महाकाव्यों के पन्नों से छिटकी,
द्रौपदी-कृष्णा हो,
न मत्स्यगन्धा, न तिलोत्तमा ।
पर
तुम कौन हो ?
स्वर्णमृगी !
जिसकी एक झलक पा
व्यग्र हो गई हैं
सीता सी
मेरी कोरी कामनाएँ !
मुझे मालूम नहीं
मेरी निगाहें
राम सी
धनुर्धारी हैं या नहीं
किन्तु
अभी तो
यह भी तय नहीं
कि कौन व्याध है
और कौन शिकार
कि लोगों ने
यह निर्णय दे दिया
कि हमने
लक्ष्मण रेखा लांघी है
अब अभिशाप है
और हम हैं
काली रात सा कलंक है
हमारे माथे पर
दिठौने-सा ................ ।
(2)
समुद्र मंथन की कथा,
विवरण और विस्तार से
नहीं मैं सुपरिचित
अमृत - कलश
देव - दानव संघर्ष
विष्णु-मोहिनी रूप का
नहीं मैं गवाह
किन्तु
पुराणकारों ने जिसे छुपाया,
न गाया गीत
जिसका कवियों ने
समुद्र-मंथन से ही निकली
वह अमूल्य निधि
तेरे चेहरे का नमक
..................................
जिसका मैं गवाह हूँ
जिसे
देव वरूण ने
स्वयं अँजुरी भर-भर
न्यौछावर किया
तुम पर
तुम्हारे जामुनी रंग पर
और स्वयं ही धन्य हुए
तुम्हारी निगाहों से
नाक की तीखी कोर से
पसीने की बूँद से
बिखरता
नमक का एक कण
शत-शत अमृत कलशों पर
भारी है
हे साँवरी !
(3)
देह है
या देह नहीं है
शाश्वत प्रश्न यह कि
सिर्फ रूह है -
खुशबू भरी
कि देह भी है
देह तो घर भी है
बिस्तर भी
स्पंदनहीन, आवेगहीन
कामनाओं-सी रीती
सिर्फ आदत
और ऊब
.......................
मानो एक मुठ्ठी रेत
रोज गिरती हो
रूह पर
.........................
जिसकी खुशबू
युगों पूर्व
गुम हो गई हो
कपूर सी ।
सच कहूँ तो
तुम अश्विनीकुमारों की
वरदान हो
मेरी द्वितीया !
(या अद्वितीया !)
तुम्हारे
लावण्य के एक परस ने
मनो-मन
रेत गला दी है
कालचक्र को उलट
संभव किया है
किशोर हो जाना
मेरे मन का
पुनर्नव !
कि जैसे
अपनी ही राख से
फिर जाग गया हो
ककनूस पंछी
इच्छाओं की उत्ताल-
लहरों को
सीने में समोए
वृन्त पर इकलौते
पीपल पत्ते सा थरथराता
नेह-आतुर, स्पर्श-कातर
तुम्हारी देह की चाँदनी में
बिछल-बिछल जाता
यह चिर किशोर
तुम्हारा आभारी है
मेरी उर्वशी !
ऋषि श्वेतकेतु के
इस छतनार गाछ,
मंत्र अभिरक्षित
पुरातन सुरक्षित
पारम्परिक
परिणय के लिए
तुम
पतझड़ हो, विष हो
अभिशाप हो, कलंक हो,
पर सच तो यह है
तपती रेत सी
हमारी एषणाओं के लिए
पवित्र सात्विक
अमृत-धार हो तुम
मेरी कृष्णा !
हे मेरी मैत्रेयी !
तुमने ही तो
नवमंत्र दिया
मुझे दीक्षित किया
कि
यह देह भी सत्य है
रूह भी
और
अलौकिक खुशबू भी ।