भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सागर मंथन / उपेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न भूतो
न भविष्यति
जैसी कोई घटना
नहीं है सागर-मंथन
यह नहीं है
अतीत का कोई ऐसा
सामूहिक अभियान
जिसे भविष्य दुहरा न सके

मिथक होते हुए भी
हैं कहीं इतिहास
सागर-मंथन
अभिशप्त अपने आपको दुहराने के लिए
नितान्त वैयक्तिक स्तर पर
एकांतिक रूप से
मंथन
उस सागर का
लहराता है जो
सबके भीतर

कभी ज्वार, कभी भाटा
सुखों का
दुचिंताओं का
विचारों का सागर
जिसे
जीवन, समय
परिस्थितियाँ और पूर्वाग्रह
मथते जाते हैं
निरंतर

रहना होता है
सदा सचेत
निजी सागर-मंथन के प्रति
वर्ना कभी-कभी
धर लिए जा सकते हो
ऐसी वस्तुओं को
रखने के अपराध में
जिनका लाइसेन्स
नहीं होगा तुम्हारे पास,
मसलन
स्वतंत्र विचार
सही सिद्धांत
या फिर एक निर्भय मन
बन सकते हो,
दूसरों की ईर्ष्या का पात्र
यूँ ही
मर सकते हो
असावधानी बरतते हुए
हलाहल के प्रति

मंथन से निकले
स्वर्ग और नर्क
तुम्हारे ही रहेंगे
जिन्हें एक-दूसरे से
बदलते रहोगे तुम
अपनी लक्ष्यहीन अनन्त यात्राओं में
सम्भावनाओं की धरती पर
सब कुछ सजा
खोल सकते हो तुम
एक डिपार्टमेंटल स्टोर
मंथन से उत्पन्न
दुस्तर फेनराशि
बना सकती है तुम्हें
कभी भी सफल व्यापारी
क्योंकि प्रत्येक ग्राहक
संतुष्ट नहीं होता जब तक
खरीद न ले वह ऐसा कुछ
जो उपलब्ध ही न हो
बिक्री के लिए

तुम्हारा यह
व्यक्तिगत सागर मंथन
कम नहीं
किसी मिथक से
यह तुम्हें
सारे अँधेरों समस्त भटकनों
के पार
पहुँचाएगा एक दिन
और अगस्त्य-सा
सोख लोगे तुम
दुश्चिंताओं का लहराता सागर