भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सागर रुके हैं -पोत टूटे / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
सागर रुके हैं
पोत टूटे
रेत में लंगर फँसे
दिन धूप गिनते रह गये
परछाइयों के जाल में
नावें पुरानी क्या करें
हैं छेद सारे पाल में
मछुए लगे थकने
पुराने डाँड़ मुट्ठी में कसे
खारे जलों से
कर लिये रिश्ते
अँधेरे द्वीप ने
ये शंख बूढ़े हो गये
चिढ़कर कहा है सीप ने
तट पर अकेले
घूमते हैं लोग साँपों के डँसे