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साथ असाथ / सपना भट्ट

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नेह की कलसी
हर ऊसर देह पर नहीं ढुलती।
सूर्य हर फूल को
समान उत्ताप से नहीं चूमता।

जानती हूँ कि प्रेम में
पात्रता से नहीं
भाग्य से भीजती है आत्मा

किन्तु विनोदप्रिय ईश्वर ने
मेरे जन्मचक्र में
दुर्भाग्य को ढाई कदम आगे रख छोड़ा है।

पीड़ाओं के तोरण
मन की चौखट पर ऐसे पक्के धागों से बंधे हैं
कि दुःख का एक पात नहीं टूटता।

प्रेम के इस गर्वीले शोक ने
मुझे इतना अकेला कर दिया है
कि तुम्हारे हाथों का गर्म स्पर्श भूल रही हूँ।

साथ-असाथ की परिभाषा में
तुम्हारे साथ परछाई-सी चलती हूँ
तब भी खुद को तुमसे विलग ही पाती हूँ।

अजब संताप है कि
कोई कामना फलित नहीं होती
बिरह की मैली छाया
मेरे हर सुख को मलिन कर देती है।

मैं कारुण्य से भरी हुई
तुम्हारी बाट जोहती हूँ।
पर यह मुई प्रतीक्षा अपने ही बीज से
शतगुणित होती जाती है।

प्यार!
तुम मेरे इतने निकट कब हो सकोगे
जो किसी उदास उनींदी दोपहर
तुम्हारा हाथ थाम कर कह सकूँ

कि " जीवन की सांझ द्वार पर खड़ी है
अब लौट आओ" !

देखो न,
तुम्हारी स्मृतियों के लत्ते
तार तार होने लगे हैं
मुझे कोई नई सुंदर याद पहना जाओ। सJ