भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सामने इक ख़्वाब की दीवार थी / आनन्द किशोर
Kavita Kosh से
सामने इक ख़्वाब की दीवार थी
पर हक़ीक़त दूर उसके पार थी
कोई शीशा था वहाँ पत्थर कोई
हर किसी की ज़िन्दगी बेज़ार थी
रात भर बैठा रहा सर्दी में वो
धूप की उसको बड़ी दरकार थी
दौरे हाज़िर में है जैसे बर्फ वो
जो क़लम इक आग की तलवार थी
मेहरबानी दोस्तो की, शुक्रिया
ज़िन्दगी दुश्वार है दुश्वार थी
हम कभी 'आनन्द' हारे थे नहीं
जिससे हारे, वक़्त की रफ़्तार थी