भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सामर्थ्य कितना है? / नवीन दवे मनावत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है! भूख
रूक! और बता
कहाँ तक है तेरी ख्वाहिसें?
और
कितनी है तेरी तड़प?
भूख निरूत्तर-सी हो व्यथित हो गई
और
उसकी आंखो से निष्प्रभ दो बूंद टपकी
वह हमेशा हंसना चाहती थी
महसूस करना चाहती थी
पीड़ा को!

प्यास के सामने चिल्लायाँ
कि बता चाह में राह कितनी है?
वह मेरे सामने हंसकर
भाग गई, रेगिस्तान की ओर!

नींद को मजबूती से पकड़ कर
पुछा कि सपने कब तक
यथार्थ बनते है!
वह निराश हो कर वही बैठ गई
और
आदमी की औकाद गिनाने लगी

अब मेरे कथन
और मेरी जिज्ञासा
लाचार हो
मेरे को ही व्यथित करने लगी
कि तुम्हारे में सामर्थ्य कितना है?