भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सारा जमा-ख़र्च / सरबजीत गर्चा / सलील वाघ
Kavita Kosh से
सारा जमा-ख़र्च देखने के लिए
पुराने कैलेण्डर लेकर बैठने पर
समझ में आता है कि कितना नाहक खुरचता है
निष्पत्र पेड़ों में सरकता जाता चाँद
नदी में झिलमिलाते इमारतों के प्रतिबिम्ब
समन्दर आकाश टीले बिजलियाँ सूरज तारे
गुड्डों जैसे दिखते लोग और बारिशों के मौसम
ये सब होते हैं बार-बार आने वाले
फिर भी क्षणों की चिमटी में पकड़ना नहीं आया
इसमें का सब कुछ हमें
उनके द्वारा एक-दूसरे को दी गई गालियों का ही
अध्ययन किया हमने ईमानदारी से
बेकार में जबड़े दुखाए सवालों की बड़बड़ में
और सरपट दौड़ गए सच्चे जवाब आए
तब दुबककर बैठ गए
कविता की टिकाऊ ओरी में
उदासीन
मूल मराठी से अनुवाद : सरबजीत गर्चा