भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सारे शहर में आपसा कोई नहीं / आनंद बख़्शी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
र: सारे शहर में आपसा कोई नहीं, कोई नहीं

आ: सच

र: सारे शहर में...

आ: यही सोचकर रात भर मैं सोई नहीं, सोई नहीं

र: सारे शहर में ...
र: मेरा दिल जिसपे फ़िदा है वो दिलबर वो महबूब हो तुम

आ: थोड़े से तुम हो झूठे आदमी बहुत ख़ूब हो तुम

र: ऐ हसीना बड़ी ख़ूबसूरत हो तुम
मुस्कराती हुई कोई मूरत हो तुम

आ: ऐ जान-ए-जाँ खोए हो कहाँ
कोई तुम्हारी चीज़ तो खोई नहीं, खोई नहीं

र: तुमको मेरी वफ़ा पे जाने क्या-क्या ग़ुमाँ हो रहे हैं

आ: कितना भी तुम छुपाओ अफ़साने बयाँ हो रहे हैं

र: इश्क़ करता हूँ आशिक़ मेरा नाम है

आ: आह आशिक़ ह ह ह ह

र: इश्क़ करता हूँ आशिक़ मेरा नाम है
ऐश करना मेरी जाँ मेरा काम है

आ: ऐसे भी हो तुम वैसे भी हो तुम जैसे भी हो
हमको शिक़ायत आपसे कोई नहीं, कोई नहीं

र: सारे शहर में...

र आ: सारे शहर में...