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सार जीवन मिले / प्रेमलता त्रिपाठी
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धरा से गगन सार जीवन मिले ।
सुखद मान से प्राण तन-मन खिले ।
नहीं चाहिए मन उदासी भरा ।
न सौगात चाहूँ विरह सिलसिले ।
भुलाकर सभी क्लेष बीते बरस,
सजे कारवाँ बढ़ चले काफिले ।
निभाना मुझे है मनुज धर्म को,
न बोझिल सहें रूढ़ियों के किले ।
लिखेंगे वही प्रेम आधार जो,
रहे श्रेष्ठ चिंतन अधर क्यों सिले ।