सावन ने गढ़े छंद / हरिवंश प्रभात
सावन ने गढ़े छंद, वर्षा ने रचे गीत
किसलय की क्यारी से चली गंध मंद-मंद।
जाती हुई लहरों ने कुछ कहा किनारों से
कुछ सुना दरख्तों ने और उठे झूम-झूम
कलियों के भीगे कपोलों को चूम रहे
भंवरों को देख-देख पत्थर भी जी उठे।
हरियाली लौटी है, बूँदें ले मोती की
होने लगे मुस्कानों के नये अनबंध।
रिमझिम ने स्वर साधा, कलम चले बिन बाधा
धरती की छाती पर हल की नोक साज बने
लिखने और दिखने की अंतहीन इच्छाएँ
तनी हुई छतरी है मन करे कि भीग जाएँ,
डूबते गहराई में, ओझल अमराई में
शाश्वत अभिव्यक्ति के इन्द्रधनुषी रंग।
पेड़ों के हाथ-पाँव बाँध कोई झूले
जैसे कोई चित्रकर सपनों को छूले,
प्रकृति के ग्रंथ सभी मौसम ने पढ़ डाले
पुरवा के झोंके हैं सिहरन के शब्द भरे,
परदेशी यादों के, फुहारों के हाथों से
नभ के वातायन में उड़े मन का पतंग।