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साषीभूत कौ अंग / साखी / कबीर

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कबीर पूछै राँम कूँ, सकल भवनपति राइ।
सबही करि अलगा रहौ, सो विधि हमहिं बताइ॥1॥

जिहि बरियाँ साईं मिलै, तास न जाँणै और।
सब कूँ सुख दे सबद करि, अपणीं अपणीं ठौर॥2॥

कबीर मन का बाहुला, ऊँचा बहै असोस।
देखत ही दह मैं पड़े, दई किसा कौं दोस॥3॥800॥